एक नशा, एक गीत, एक दर्द
हरे वृक्ष की टहनियों पर
अनायास
खिल गए हैं अनगिनत लाल फूल
कुछ वैसा ही
जैसा - किसी बेवा की मांग में फिर से सिन्दूर
पावलो नेरूदा ने लिखा - दर्द
या, ब्रेख्त ने सहा दर्द, या मुक्तिबोध ने
चाँद को देखकर
भरी आह !
तो फिर इस बहाने
चले आते हैं फूल जेहन में
उठती है दिशाहीन ध्वनियाँ
टकराते हैं शोर आपस में ख़ामोशी से
कि कौन कहता है
जीना एक नशा है ?
कि हमने जो गढ़ा है
वह मुकम्मल एक गीत है ?
कि कौन कहता है
हमने जो सहा वह बहुत सहा ?
कोई पत्ता बेचैन नहीं
सागर कि कोई बूँद नहीं
या कोई उदास शाम नहीं
यह सीमन- द- वुवा नहीं - सार्त्र नहीं
यह नशा नहीं गीत नहीं कविता नहीं
यह सदियुं से, खूंटे से बंधी
एक तस्वीर है - सदियों से
मीलों से आती एक अनसुनी आवाज़ है !!!
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